
गणगौर राजस्थान और मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है। किसी न किसी रूप में यह पूरे देश में मनाया जाता है। “गण” भगवान शिव का पर्याय है और “गौरी” या “गौर” देवी पार्वती का प्रतीक है, जो भगवान शिव की स्वर्गीय पत्नी हैं। गणगौर इन दोनों के मिलन का उत्सव है और यह वैवाहिक और वैवाहिक सुख का प्रतीक है। गणगौर हिंदू कैलेंडर के पहले महीने चैत्र (मार्च-अप्रैल) के महीने में मनाया जाता है। यह महीना सर्दियों के अंत और वसंत की शुरुआत का प्रतीक है। यह त्यौहार विशेष रूप से महिलाओं द्वारा मनाया जाता है, जो अपने घरों में “गण” और “गौरी” की मिट्टी की मूर्तियों की पूजा करती हैं। इन मूर्तियों की पूजा अविवाहित लड़कियां करती हैं जो अच्छे पति के लिए गण और गौरी का आशीर्वाद मांगती हैं, जबकि विवाहित महिलाएं अपने पति के अच्छे स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करती हैं। चैत्र महीने के पहले दिन से शुरू होने वाली यह पूजा 18वें दिन गणगौर उत्सव में बड़े धार्मिक उत्साह के साथ समाप्त होती है। गणगौर उत्सव की पूर्व संध्या पर, महिलाएं अपनी हथेलियों और उंगलियों पर मेहंदी लगाती हैं। त्योहार के आखिरी दिन गण और गौरी की मूर्तियों को तालाब या पास की झील में विसर्जित किया जाता है। गणगौर का पारंपरिक जुलूस सिटी पैलेस की जनानी-ड्योढ़ी से शुरू होता है, जो त्रिपोलिया बाजार, छोटी चौपड़, गणगौरी बाजार, चौगान स्टेडियम से गुजरते हुए अंत में तालकटोरा के पास पहुंचता है। जुलूस की अगुवाई पुरानी पालकियों, रथों, बैलगाड़ियों और प्रदर्शन करने वाले लोक कलाकारों की रंगारंग शोभायात्रा द्वारा की जाती है।
निमाड़-मालवा से भी जुड़ा यह पर्व

गणगौर मालवा और निमाड़ का गौरवमय पर्व है। चैत्र माह की तीज को मनाया जाने वाला यह महापर्व एक महोत्सव रूप में संपूर्ण मध्यप्रदेश निमाड़-मालवांचल में अपनी अनूठी छटा बिखेरता है। इसके साथ ही चैत्र माह में राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में महाकाली, महागौरी एवं महासरस्वती अलग-अलग रूपों में नवरात्रि में पूजी जाती हैं।
पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है गणगौर का त्योहार। चैत्र गणगौर पर्व गणगौर दशमी से अथवा एकादशी से प्रारंभ होता है, जहां माता की बाड़ी यानी जवारे बोए जाने वाला स्थान पर नित्य आठ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। यह गीत कन्याओं, महिलाओं, पुरुषों, बालकों के लिए शिक्षाप्रद होते हैं।
सर्वप्रथम होलिका दहन के स्थान से होली की जली राख से बिना थापे बने कंडे (खड़े) एवं पांच कंकर की गौरा माता घर लाते हैं। यह तभी निश्चित कर लिया जाता है कि कितने रथ तैयार होंगे।
उसी अनुरूप छोटी-छोटी टोकरियों (कुरकई) में चार देवियों के स्वरूप चार में गेहूं के जवारे एवं बच्चों के स्वरूप छोटे-छोटे दीपकों में सरावले बोए जाते हैं। एक बड़े टोकने में मूलई राजा बोए जाते हैं।
चारों देवियों एवं सरावले व मूलई राजा के जवारों का नित्य अति शुद्धता पूर्व पूजन एवं सिंचन जिस कमरे में किया जाता है उसे माता की कोठरी कहते हैं। इसी माताजी की वाड़ी में प्रतिदिन शाम को कई स्त्रियां धार्मिक भावना से चारों माता के विष्णु राजा की पत्नी लक्ष्मी, ब्रह्माजी की सइतबाई, शंकरजी की गउरबाई एवं चंद्रमाजी की रोयेणबाई के गीत मंगल गान के रूप में गाए जाते हैं।
तंबोल यानी गुड़, चने, जुवार, मक्के की धानी, मूंगफली) बांटी जाती है।
अपने परिवार की सुख-समृद्धि हेतु भक्त इस तरह से विनती कर वरदान मांग लेते हैं। माता के विसर्जन से पूर्व जो लोग माता के रथ लाते हैं, अपने घर सुंदर रथ श्रृंगार कर वाड़ी पूजन के पश्चात घर ले जाते हैं।
सायंकाल सभी रथों को खुशी प्रकट करने हेतु झालरिया गीत गाए जाते हैं। नौवें दिन माता की मान-मनौती वाले परिवार रथ बौड़ाकर या पंचायत द्वारा माता को पावणी (अतिथि) लाते हैं।
कुल मिलाकर यह संदेश दिया जाता है कि बहन, बेटी को नवमें दिन ससुराल नहीं भेजना चाहिए। दसवें दिन पुनः सपरिवार भोजन प्रसादी आयोजन होता है।
माता का बुचका यानी जिसमें माताजी की समस्त श्रृंगार सामग्री, प्रसाद, भोग एवं आवश्यक वस्तुएं श्रीफल आदि बांध कर पीली चुनरी ओढ़ाकर हंसी-खुशी विदा किया जाता है। यही परंपरा सतत चली आ रही है।