
सनातन धर्म में 16 संस्कार होते हैं जिनको बहुत महत्व दिया गया है। ये सोलह संस्कार एक मनुष्य के जीवन में भी बहुत महत्व रखते हैं। इन्हीं में से एक संस्कार है विवाह (पाणिग्रहण) संस्कार। ये संस्कार हर मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता है। विवाह संस्कार दो शब्दों वि और वाह से मिलकर बना है। वि का मतलब होता है विशेष और वाह का मतलब होता है वहन करना। विवाह संस्कार में वर और वधू जन्म जन्मांतर के लिए एक दूजे के हो जाते हैं। यह केवल एक संस्कार नहीं है बल्कि यह एक पूरी व्यवस्था है। इसी संस्कार के बाद से मनुष्य के चार आश्रमों में से सबसे अहम आश्रम यानी गृहस्थ आश्रम का आरंभ होता है।
शादी के कार्ड में हम हमेशा पढ़ते हैं कि ‘पाणिग्रहण संस्कार’, ये पाणिग्रहण संस्कार ही विवाह संस्कार कहलाता है। ये एक संस्कार ही नहीं बल्कि ये एक पूरी व्यवस्था है। हिंदू धर्म में विवाह बेहद अहम होता है और वर-वधू समेत पूरे परिवार के लिए ये बहुत मायने रखता है। हिंदू धर्म में विवाह का बंधन जन्म जन्मांतर का माना जाता है। ग्रंथों में विवाह के स्वरूप की व्याख्या की गई है जिनमें कहा गया है कि, ‘दो शरीर, दो मन, दो बुद्धि, दो हृद्य, दो प्राण और दो आत्माओं का मेल ही विवाह है।’
कहा जाता है कि जब जातक का जन्म होता है तब वो देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण का ऋणि होता है। ऐसे में देव ऋण चुकाने के लिए पूजा- पाठ, यज्ञ- हवन आदि किए जाते हैं। फिर ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए वेदाध्यन संस्कार यानी गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। वहीं पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए विवाह संस्कार का होना बेहद आवश्यक हो जाता है। यह ऋण तब तक नहीं उतरता जब तक जातक स्वयं पिता नहीं बन जाता। इसीलिए शास्त्रों के अनुसार पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए विवाह संस्कार बेहद अहम है।
पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि विवाह संस्कार से जातक की कुल 21 पीढ़ियां पाप से मुक्त हो जाती हैं। इस बारे में मनु ने लिखा है, ‘हिंदू धर्म में विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं है। इसकी धार्मिक मान्यताएं हैं। इसके अुनसार, अंत:शुद्धि होती है। जब अंत:करण शुद्ध होता है तभी तत्वज्ञान होता है। साथ ही भगवत प्रेम पैदा हो सकता है। यही मनुष्य जीवन का परम ध्येय भी होता है।’