महाराष्ट्र की शान ‘पंढरपुर उत्सव’

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यह महाराष्ट्र का सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव है पांडुरंग विष्णु तथा शिव का एकरूप है, इसीलिए यह तीर्थक्षेत्र महान माना जाता है। इसे दक्षिण काशी भी कहा जाता है। भक्तगण इस प्रेम से भू -बैकुंठ अर्थात पृथ्वी पर श्री हरि विष्णु भगवान के निवास का स्थान कहते हैं।

प्रत्येक वर्ष पंढरपुर में देवशयनी ग्यारस या एकादशी जिसे बड़ी एकादशी कहा जाता है, के अवसर पर पंढरपुर में विट्ठल (श्रीकृष्ण) तथा रखुमाई (रुक्मणी) की महापूजा आयोजित की जाती है । लाखों लोग इस पूजा के लिए यहाँ एकत्रित होते हैं । इसे वैष्णव जनों का कुंभ भी कहते है।

यह मंदिर पश्चिम भारत के दक्षिणी महाराष्ट्र राज्य में भीमा नदी के तट पर सोलापुर नगर के पश्चिम में स्थित है। यह पुणे से 211 तथा मुंबई से 360 किलोमीटर दूर है।
भीमा नदी को यहाँ चंद्रभागा के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहाँ इसकाआकारअर्धचंद्र जैसा हो जाता है।कहा जाता है, इस पवित्र नदी चंद्रभागा में स्नान करने से भक्तों को सभी पापों को धोने की शक्ति मिलती है। इस शहर का नाम एक व्यापारी पंडारिका के नाम पर पड़ा है लेकिन कई मान्यताओं के अनुसार भक्त पुंडलिक के नाम से पुंडलिकपुर और फिर उसका अपभ्रंश होते-होते पंढरपुर नाम हो गया है। पंढरपुर में होने के कारण भगवान को पंढरीनाथ के नाम से जाना जाता है।
यहाँ की यात्रा विगत 800 वर्षों से लगातार आयोजित हो रही हैं।

पंढरपुर में उत्सव
यहाँ के दो उत्सव बहुत खास होते हैं।
1 .पंढरपुर की बड़ी यात्रा, जिसमें लाखों भक्त, प्रसिद्ध संतों की पादुकाएं लेकर पंढरपुर पहुँचते हैं। यह यात्रा देवशयनी ग्यारस को पंढरपुर पहुँचती है।
2 .इस उत्सव को कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देवउठनी ग्यारस को बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है ।

पंढरपुर तीर्थ की स्थापना पंढरपुर तीर्थ की स्थापना 11वीं शताब्दी में हुई थी । मुख्यमंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में देवगिरी के यादव शासकों द्वारा किया गया था।

पंढरपुर के विभिन्न मंदिर
1.यहां भक्तराज पुंडलिक का स्मारक बना हुआ है । मुख्य मंदिर, विठोबा या श्री हरी विठ्ठल का है। सभी भक्तों को भगवान विट्ठल की मूर्ति के चरण छूने की अनुमति है। इस मंदिर में महिलाओं और पिछड़े वर्ग के लोगों को पुजारी के रूप में नियुक्त किया जाता है।
2 .मंदिर में प्रवेश करते समय द्वार के समीप भक्त चोखा मेला की समाधि है।
3 .प्रथम सीढ़ी पर ही संत नामदेव जी की समाधि है।
4 .द्वार के एक ओर अखा भक्ति की मूर्ति है
5 .निज मंदिर के घेरे में ही रुक्मणी, बलराम , सत्यभामा, जामवंती तथा राधा के भी मंदिर हैं।
6 .चंद्रभागा के पार श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक है ।
7 .यहाँ से तीन मील दूर स्थित एक गाँव में जनाबाई का मंदिर है, और वह चक्की भी है जिसे प्रभु विट्ठल ने चलाया था।

पंढरपुर पालकी
पालकी परंपरा का आरंभ महाराष्ट्र के कुछ प्रसिद्ध संतों ने किया था। उनके शिष्यों और अनुयायियों को वारकरी कहा जाता है । संत ज्ञानेश्वर ने वारी का प्रारंभ किया था। पालकी यात्रा में संतों की पादुकाएं को, सुशोभित कर एक सुसज्जित बैलगाड़ी में रखा जाता है। वारकरी संप्रदाय के लोग यहाँ य वारी देने आते हैं। वारी का अर्थ है- सालों साल लगातार यात्रा करना। इस यात्रा में हर वर्ष शामिल होने वालों को वारकरी कहते हैं तथा यह संप्रदाय वारकरी संप्रदाय कहलाता है । वारकरियों का सुसंगठित दल यात्रा के दौरान, नृत्य और कीर्तन करते हुए संत तुकाराम जी तथा संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति का बखान करते हैं। यह यात्रा आलंदी से देहू गाँव होती हुई, पंढरपुर तक जाती है।

पदयात्रा
यह यात्रा अधिकतर पैदल ही की जाती है। भक्तगण खराब मौसम में भी 21 दिन सड़कों पर बिताते हैं। होटल या बढ़िया भोजन जैसी कोई सुविधा यहाँ नहीं होती। चंद्रभागा में स्नान करके यह परिक्रमा पूरी होती है । “पुण्डलिका वरदा, हरि विट्ठल विट्ठल विट्ठल जय हरी विट्ठला” नाम का जय घोष, जाप करते-करते यात्रा आगे बढ़ती है। एकादशी की दोपहर को विट्ठल- रुक्मिणी की मूर्तियों का एक जुलूस निकाला जाता है। उत्सव आषाढ़ शुद्ध पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है।

वारी का उद्देश्य
वारी का उद्देश्य है, ईश्वर के पास पहुँचना। वारी में दिन- रात भजन- कीर्तन, नाम स्मरण चलता रहता है । मराठी शब्द वारी का अर्थ है – धार्मिक यात्रा करना।

वारी का प्रबंधन
एक छोटे संगठित समूह को दिंडी कहा जाता है । हर वारकरी किसी न किसी दिंडी का सदस्य होता है। हर दिंडी को एक क्रमांक दिया जाता है। इसका स्थान और समय निश्चित होता है। हर दिंडी का एक प्रमुख होता है, जिसका नाम दिंडी को दिया जाता है। हर दिंडी में 150 से 200 लोग रहते हैं। सदस्य, दिंडी में शामिल होते ही दिंडी प्रमुख को सूचना देकर खर्च की तयशुदा रकम सौंप देता है । फिर दिंडी प्रमुख हर सदस्य की जिम्मेदारी ले लेता है । सामान ढोने के लिए कोई ट्रक या टेंपो साथ में चलता है । हर दिंडी का विश्राम स्थल निश्चित होता है। इन 700 सालों की अवधि में हर नगर में ,हर गाँव में पालकी का स्वागत, कहाँ होगा ? कौन करेगा ? इसकी भी परंपरा बनी हुई है। सभी कार्य सुनियोजित तरीके से संपन्न होते हैं । यूं तो दिंडी के सदस्य अलग-अलग गाँव या शहरों से होते हैं, लेकिन सभी एक परिवार जैसे बन जाते हैं। भक्तगण एक दूसरे को माउली कहते हैं, जिसका अर्थ होता है माँ

पंढरपुर यात्रा से जुड़ी पौराणिक कथा
इस कथा के अनुसार, छठवीं सदी में महान संत पुंडलिक हुए थे ,जो माता-पिता के परम भक्त थे ,और अपने इष्ट देव भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे। श्रीकृष्ण इस अनन्य भक्त पुंडलिक की भक्ति से बहुत आनंदित हुए तथा पत्नी रुक्मणी के साथ , पुंडलिक के घर चले गए। प्रभु ने पुंडलिक को बड़े प्रेम से पुकारा और कहा- “हे पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं “। भक्त पुंडलिक उस समय निंद्रा में लीन अपने पिता के पैर दबा रहे थे। उनके शयन में बाधा ना आए, इसलिए उन्होंने प्रभु को कहा-“प्रभु, मैं अभी पितृसेवा में लीन हूँ। आप इस बाहर रखी ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए”। प्रभु ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर हाथ रखकर, पैरों को जोड़कर ईंट पर खड़े हो गए । साथ में आई रुकमणी जी ने पूछा ? अब मैं क्या करूं? प्रभु ने उन्हें , वे जहाँ थीं, वहीं खड़े रहने को बोला। इसलिए रुक्मणी और विट्ठल दोनों यहाँ पर अलग-अलग स्थान पर खड़े हैं। तथा उनके मंदिर भी अलग है। पिता की नींद खुलने के बाद जब भक्त पुंडलिक प्रभु से मिलने आए , तब तक प्रभु मूर्ति का रूप ले चुके थे। भक्त पुंडलिक ने उस विट्ठल रूप को ही अपने घर में पूजने के लिए स्थापित कर दिया।

पंढरपुर उत्सव यह भारत ही नहीं बल्कि दुनिया का एक अलौकिक उपक्रम है। प्रभु के दर्शन का आनंद पूरे महाराष्ट्र में फैला रहता है जो एक तृप्ति भरा आनंद होता है। यह वारी , भाव भक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण होती है।
पंढरपुर वारी के लिए महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की है कि उन्होंने “यूनेस्को की मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत” की प्रतिनिधि सूची में शामिल करने के लिए 9,90000 रुपए आवंटित किए हैं। जिससे विश्व भर में इस पंढरपुर उत्सव की और प्रसिद्धि बढ़ेगी।

विट्ठल विट्ठल ,जय हरि विट्ठल

डॉ सुनीता फड़नीस

सेवानिवृत्त शा. प्राध्यापक

स्नेहलता गंज
इंदौर (म प्र)